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लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में / कैफ़ी आज़मी

लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना<ref>मादक लड़खड़ाहट</ref> तेरे शहर में ।
फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में ।

आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ
आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ।

जुर्म है तेरी गली से सर झुकाकर लौटना
कुफ़्र<ref>धर्मविरोधी</ref> है पथराव से घबराना तेरे शहर में ।

शाहनामे<ref>फ़ारसी कवि फ़िरदौसी की अमर रचना</ref> लिक्खे हैं खंडरात की हर ईंट पर
हर जगह है दफ़्न इक अफ़साना तेरे शहर में ।

कुछ कनीज़ें<ref>दासियाँ</ref> जो हरीमे-नाज़<ref>प्रेमिका का घर</ref> में हैं बारयाब<ref>जिसे प्रवेश मिल गया हो</ref>
माँगती हैं जानो-दिल नज़्राना तेरे शहर में ।

नंगी सड़कों पर भटककर देख, जब मरती है रात
रेंगता है हर तरफ़ वीराना तेरे शहर में ।

शब्दार्थ
<references/>