लाखों साल पीछे: हजारों साल आगे / लीलाधर जगूड़ी
मेरी जड़ें लाखों साल पीछे हैं
और फुनगियाँ हजारों साल आगे
हजारों किलोमीटर तक बिना उखड़े
झकोरे खा सकता हूँ मैं
एक कागज जो दिनों के ढलने
रातों के गलने से बना है
जो सैकड़ों वर्षों की स्याही के बाद
उभरा है सफेद
लिखने योग्य सफेद का दिखने योग्य काला
स्याही को अदृश्य और शब्दों को उजागर करनेवाला
जो स्याही और कलम के अनुभव से
बाहर निकल जाता है
जहाँ सदियों के खटराग से उपजा संगीत है
जहाँ उठा-पटक। धर-पकड़
और खट-पट का ताल है
जिस पर नाचता हुआ पुराना सूरज
समय को नये अँधेरे में बदल देता है
नया अँधेरा बना जाता है
पुरानी रात का हिस्सा
पुराने सूरज की दी हुई नयी सुबह
चढ़ाती है आत्मा के उतरे हुए तार
अगले मिनट होनेवाले समय में
तीन तरह का था, हूँ, होऊँगा मैं
मेरी जड़ें लाखों साल पीछे हैं
और फुनगियाँ हजारों साल आगे।