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लाख-चौरासी खतम हुई बीत कल्प-युग चार गए / लखमीचंद

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लाख-चौरासी खतम हुई बीत कल्प-युग चार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥टेक॥

बहुत सी मां का दूध पिया पर आज म्हारै याद नहीं -
बहुत से भाई-बहन हुए, पर एक अंक दर याद नही।
बहुत सी संतान पैदा की, पर गए उनकी मर्याद नहीं -
बहुत पिताओं से पैदा हुए, पर उनका घर भी याद नहीं॥1॥

शुभ-अशुभ कर्म करे जग में, स्वर्ग-नरक कई बार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥

कहीं लिपटे रहे जेर में अपने कर्म करीने से -
कहीं अंडों में बंद रहे कहीं पैदा हुए पसीने से।
कहीं डूबे रहे जल में, कहीं उम्र कटी जल पीने से -
फिर भी कर्म हाथ नहीं आया, मौत भली इस जीने से॥2॥

कभी आर और कभी पार, डूब फिर से मंझधार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥

कभी तो मूल फूल में रम-ग्या, कभी हर्ष का स्योग लिया -
कभी निर्बलता कभी प्रबलता, कभी रोगी बण-कै रोग लिया।
कभी नृपत कभी छत्रधारी, कभी जोगी बण-कै जोग लिया -
भोग भोगने आये थे, उन भोगों ने हमको भोग लिया॥3॥

बड़े-बड़े योगी इस दुनियां में सोच-समझ सिर मार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥

आशा, तृष्णा और ईर्ष्या होनी चाहियें रस-रस में -
वो तो बस में हुई नहीं, हम हो गए उनके यश में।
न्यूं सोचूं था काम-क्रोध नै मार गिरा दूं गर्दिश में -
काम-क्रोध तै मरे नहीं, हम हो गए उनके बस में॥4॥

इतनी कहै-कै लखमीचंद भी मरे नहीं, दड़ मार गए।
नाक में दम आ लिया, हम मरते-मरते हार गए॥