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लाख हैं पाँव फंसे जालों में / विजय किशोर मानव
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लाख हैं पांव फंसे जालों में
फिर भी हम होंगे उड़ने वालों में
जीना मुमकिन नहीं था प्यादों का,
अगर ये शह न होती चालों में
हैं मुक़बिल, हो काई भी तलवार
ख़ूब तेवर हैं बूढ़ी ढालों में
जिये अंधेरों के बाग़ी बनकर
किस तरह मर गए उजालों में