भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लागै है / इरशाद अज़ीज़

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

औ तो हुवणो ईज है
रोवणो है मन सूं
या ऊपरलै मन
तेजाब रो रुकणो
अेक ई जग्यां उबळणो
फूलां रै सुपनां नैं
राख कर देवै
सांस-सांस मांय
धुंवो भर देवै
हर बार
लागै है
हर आवती-जावती सांस
आखरी
इण फूठरी-फर्री
दुनियां मांय।