लाभ कहा कंचन तन पाये।
भजे न मृदुल कमल-दल-लोचन, दुख-मोचन हरि हरखि न ध्याये॥१॥
तन-मन-धन अरपन ना कीन्हों, प्रान प्रानपति गुननि न गाये।
जोबन, धन कलधौत-धाम सब, मिथ्या आयु गँवाय गँवाये॥२॥
गुरुजन गरब, बिमुख-रँग-राते डोलत सुख संपति बिसराये।
ललितकिसोरी मिटै ताप ना, बिनु दृढ़ चिंतामनि उर लाये॥३॥