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लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले/ ज़ौक़

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लायी हयात<ref>ज़िन्दगी</ref>, आये, क़ज़ा<ref>मौत</ref> ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात<ref>जुए के खेल में</ref> पे हम जैसे बद-क़िमार<ref>कच्चे जुआरी</ref>
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र<ref>अमरता</ref> भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग<ref>मृत्यु के समय</ref>
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले

नाज़ाँ<ref>घमंडी</ref> न हो ख़िरद<ref>बुद्धि</ref> पे जो होना है वो ही हो
दानिश<ref>समझदार</ref> तेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़<ref>प्रेम की हवा</ref> में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी बला से बादे-सबा<ref>सुबह की शीतल वायु</ref> अब कहीं चले

शब्दार्थ
<references/>