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लाये हैं बांधकर / ब्रज श्रीवास्तव

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जितने बचपन में देखे थे
उतने इस कस्बे में
नहीं दिखाई देते कबूतर
कुछ परंपराओं की तरह
जैसे ये भी गायब हो गये हैं

अलबत्ता महानगर की
पांचवी मंजिल पर भी
उड़ उड़ कर आ जाते हैं
पर परंपराएं यहां भी गायब हैं

डूबने मन होता है
इनकी टुकुर टुकूर आँखों में
कम से कम इतना तो
उड़ना आना चाहिए मुझे भी
जितना उड़ना मैं इनका देख रहा हूँ

सोच रहा हूँ
ये एस.एम.एस, ये कोरियर सेवाएं
अपनी परंपरा में
कबूतर के बारे में तो
जरूर पढ़ते होंगे

इन कबूतरों ने
पता नहीं प्रेमिकाओं की चिट्ठीयां
पहुंचाई होंगीं या नहीं
उनके प्रेमियों तक

पता नहीं उस सदी में
बादशाहों के सियासती ख़त
भेजे होंगे या नहीं

मगर
इस वक्त ज़रूर ये कबूतर
बचपन की एक स्मृति को
बांधकर लाये हैं
मुझे देने के लिए