लालटेन / सुभाष शर्मा
जुगजुगा रही है लालटेन कमरे में
जैसे धक्-धक् कर रहा है दिल
उसके सीने की धड़कन हो जाती है तेज
उसकी सुनहली रोशनी
पालती है सुनहला भविष्य अपने साथियों के लिए
बिस्तर से उठते हुए सूरज अलसाता है
दिन में थककर ऊँघने लगता है
कभी-कभी निगल जाते हैं उसे
घने काले बादल
सिर्फ लालटेन ही बनती है दूसरा सूरज
गोशाले से रसोई तक ।
बिजली, बैटरी और जनरेटर हो सकते हैं फेल
लेकिन लालटेन तैयार रहती है हरदम
उसे चाहिए मिट्टी का तेल
और माचिस की एक तीली ।
पहली दुनिया भले पहुँच जाए पच्चीसवीं सदी में
रोबोट ढाल दे कोई नकली सूरज
पर लालटेन रहेगी अक्षुण्ण शेष दुनिया के लिए
जैसे रहता है पुरुषों की छाती पर बाल
बच्चों की आँखों में आँसू
औरतों की आँखों में लाज ।
जब पूरी दुनिया हो जाती है जलमग्न
लालटेन की रोशनी झटपट
थाह लेती है पानी के अंदर डुबकी मारकर
जहाँ तक फैलती है रोशनी
कम होती जाती है पानी की गहराई
शरमाने लगती है बाढ़ अपने-आप पर
और रोशनी पहचान लेती है काले-सफेद चेहरे
सब लोग रखना चाहते हैं
अपने-अपने कलेजे में
एक-एक जलती हुई लालटेन ।