लालबत्ती / पीयूष दईया
यहाँ देश दोबारा गिनती नहीं होती सो हमारे समय में
ज़मीनी जीवित उदासीन थे
सोलह आने से
दुर्दान्त दुर्निवार तारी था : आकाशी छप्पर-तले
यूँ भी उजाले सब श्राप-सरीखे थे--
दंतकथाओं की डोकरी डायन के
डगाली डेरे। डोलते। दिन भी
दराँती भोंकने वाले दरिन्दों में बदल गये थे :
चिमगादड
तामसी के अँडियाते : उल्टे लटके विक्षिप्त :
उदात्त के भंगी :
गला रेत ही लेते गर उंगलियों तक गल न जाते। वे
बरगदी बिसात वाले आला औकात के थे। सवाक
सवेरा सीझकर स्याह हो चुका था।
जान हथेली पर रख लड़ा मगर मैदान उन्हीं के हाथ रहा
जिन्दा मात। मुर्दा जीत से बेहतर : सिर मुंडा-मुंडा कर बैठा
तब भी अहर्निशओले। लानत है, निजात नहीं
सन्निपातसिफत :
तमाम
तड़क गया है
चाक के लिए भला क्या बचा : तमाम : सब दाँव पर
लगा लिया तो पता चला कि पाला बदला जा सकता था
और तुम आदर से सिर नवाते थे।
उत्तरोत्तर जल गये आसरे : कांच-कलेजे पर
बरकत ने मुँह फेरा तो घटित-घडी में
एक लम्बा श्वसन बाकी था। तीन कौड़ी का।
दो कौड़ियों वास्ते दर-दर भटकता। पत्तल-पाली तक
दूसरों के दान की : तलवे चाटता
हवा हो गया बाल नोचते
सारी साध सिधाई से सिधारी :
बुक्का फाड़े लालबत्ती
तीसरा डग भरने की कोशिश में
शब्दों की शरीफ़ शिराओं ने भी
शमशानी शउर शिद्दत से सीख लिया था पर
वे बेशिनाख्त बिसार में बेराहत थे
तिमिर के फेफड़ों में फड़फड़ाते
अनाप्त। वक्फ़ों पर
हासिल सब हलाक : वक़्त ही नहीं वजूद भी
चारों ओर बजबजाता बंजर। रक्तसूखा, चिलचिलाता
माथे पर का डिठौना
मक्काई मस्से में बदल गया था : एक तिमिर बर्जख
हाजत रफ़ा करता।