लालहि जगाइ बलि गई माता / सूरदास
राग रामकली
लालहि जगाइ बलि गई माता ।
निरखि मुख-चंद-छबि, मुदित भइ मनहिं-मन ,कहत आधैं बचन भयौ प्राता ।
नैन अलसात अति, बार-बार जमुहात , कंठ लगि जात, हरषात गाता ।
बदन पोंछियौ जल जमुन सौं धौइ कै,कह्यौ मुसुकाइ, कछु खाहु ताता ॥
दूध औट्यौ आनि, अधिक मिसिरी सानि ,लेहु माखन पानि प्रान-दाता ।
सूर-प्रभु कियौ भोजन बिबिध भाँति सौं,पियौ पय मोद करि घूँट साता ॥
भावार्थ :-- अपने लाल को जगाकर माता उस पर न्योछावर हो गयी । उस चन्द्रमुख की शोभा देखकर मन-ही-मन आनन्दित हुई । (श्याम) आधी (अस्पष्ट) वाणी में कहते हैं-`सबेरा हो गया?' नेत्र अधिक आलस्य भरे हैं, बार-बार जम्हाई लेते हैं । माता के गले लिपट जाते हैं, इससे उसका शरीर हर्षित (पुलकित) हो रहा है । यमुना-जल से धोकर मुख पोंछ दिया और मुसकरा कर (मैया) बोली--`लाल! कुछ खा लो । मेरे प्राणदाता! औटाया (गाढ़ा किया) दूध लायी हूँ, उसमें खूब अधिक मिश्री मिलायी है; (और) यह मक्खन(अपने) हाथपर ले लो ।' सूरदास जी के स्वामी ने अनेक प्रकार से भोजन किया और हर्षित होकर (केवल) सात घूँट दूध पिया ।