लाली / नबीना दास / रीनू तलवाड़
गर्मियों के पूर्वी आकाश में खिल रहा था एक तूफ़ान
पश्चिम लाल दीखता था
झाड़ी पर लदे क्रोध के गुलाब और उसके काँटों में अटके
टीसते चेहरे, नफ़रत ।
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बैठक के टी०वी० पर तुम फिल्म देख रहे थे — काशे
कटे हुए गलों से बह रहे थे खून के फव्वारे
एक बेढँगी-सी दौड़ में सर-कटे चूज़े इधर-उधर छितर रहे थे
पीछे, आगे, फिर पीछे ।
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मेरी उँगली ने छुआ टमाटर की लाल खाल को और फैली
लाल रोशनाई, अन्धकार-समरूप
क्या यही नहीं था वह जो मेरे पिता के इँक़लाबी मित्र
लेकर आए थे, एक अख़बार कसकर लिपटा हुआ ।
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तो नहीं जान पाएँगे सब कैसे लुढ़कते हैं शब्द
क्रोधित और लाल हमारी सड़कों पर?
मुझे लगा जैसे मैंने एक शब्द को फिर से फड़फड़ाते देखा,
एक रँग, कोई नाम, न ही गीत जैसी कोई सांसारिक वस्तु ।
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तुमने सोचा हम खो चुके है अपनी जुबाँ, अपना नज़रिया
जमा होता रहा वह शर्म की लाली तले
तूफानों, मृत्युओं, छल की ख़बरों की परिधि पर
और मैंने समझा कि एक रँग को नहीं चाहिए कोई नाम ।
मूल अँग्रेज़ी से अनुवाद : रीनू तलवाड़