लाल खपरों पर का चांद / सतीश चौबे
वहाँ लाल खपरों के ऊपर
चंदा चढ़ आया रे !
आज टेकड़ी के सीने पर दूध बिखर जाएगा
आज बड़ी बेडौल सड़क पर रूप निखर आएगा
आज बहुत ख़ामोश रात में अल्हड़ता सूझेगी
आज पहर की निर्जनता में मादकता बूझेगी
वहाँ किसी ऊदे आँचल पर मोती जड़ आया रे !
वहाँ लाल खपरों के ऊपर
चंदा चढ़ आया रे !
आज वहाँ नदिया के जल में चांद छन चुका होगा
नदियों पर बहते दियों का रूप मर चुका होगा
आज घाट पर बेड़ों का जमघट भी लहराएगा
आज सैर के दीवानों पर नशा रंग लाएगा
नदिया के रेशों पर जैसे रेशम कढ़ आया रे !
वहाँ लाल खपरों के ऊपर
चंदा चढ़ आया रे !
आज दूर तक फैले खेतों पर चांदी उग आई
आज गाँव की टालों तक जैसे एक डोर खिंच आई
आकाश पर आज बुन गया एक दूधिया जाला
मिट्टी पर ज्यों लुढ़क गया हो भरे दूध का प्याला
धरती के चेहरे पर जैसे शीशा मढ़ आया रे !
वहाँ लाल खपरों के ऊपर
चंदा चढ़ आया रे !