भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाल छतरी वाली बुढ़िया / सुरेन्द्र स्निग्ध

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस शहर में भारी वर्षा हुई है
सड़कों को धो-पोंछ कर
अभी-अभी
चुपचाप कहीं दूर
चली गई हैं बौछारें

इस पतली सड़क पर
चला जा रहा हूँ अकेला
पाना चाह रहा हूँ इसका छोर

इस शहर के सभी घरों के बन्द हैं दरवाज़ें
बन्द पड़ी हैं सभी दुकानें

एक भी आदमी
दूर-दूर तक नहीं आ रहा है नज़र
एक निर्जीव दहशत भरा सन्नाटा
पसरा है चारों ओर

यह सड़क अचानक हो गई है विलुप्त
समुद्र के किनारे
उठे भयंकर तूफ़ानों के बीच

यहाँ
पिछले चालीस वर्षों से
मैं आता रहा हूँ निरन्तर
समुद्र की विशालता
और तूफ़ानों की भयावहता
समा गई है मेरे जीवन के रन्ध्र-रन्ध्र में
फिर भी
क्यों नहीं पहचान पा रहा हूँ
इस सड़क को
जिससे चलकर आता रहा हूँ
इस परिचित समुद्र के किनारे
भयावह तूफ़ानों के बीच
समुद्री तूफ़ान की काली लहरें
निगल गई हैं पूरा शहर।

निर्जन शहर में
मैं हूँ अकेला
समुद्री तूफ़ानों के सामने
अचल मस्तूल की तरह।

नहीं,
वह आ रही है
एक विशाल पाल वाली नौका
थपेड़ों को खाती
आँधियों को धता बताती
क़रीब-क़रीब किनारों को छूती
वह आ रही है
आ रही है, बड़ी-सी पाल वाली नौका

समीप आने पर
उभर रहा है एक रोमाँचक दृश्य
इस नौका पर अकेली बैठी है
एक बुढ़िया
जर्जर लाल छतरी लिए
इसी से बचा रही है
समुद्री तूफ़ानों के बवण्डर
कहीं से डरी-सहमी नहीं है वह
तूफ़ानों पर मचलती
लहरों को चीरती
बढ़ी आ रही है आगे
इस शहर के एकदम नज़दीक

बुढ़िया
इस शहर में लौटने वाली
प्रथम नागरिक थी ।