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लाल बादलों का घर / कुमार कृष्ण
Kavita Kosh से
वह जानती है-
तकिये के नीचे चाँद छुपाने की कला
जानती है रिश्तों की रस्सी से जीवन को बाँधना
उसे आता है
उम्मीद के छोटे-छोटे खिलौनों से खेलना
लाल बादलों का घर है उसकी मांग
वह कभी-कभार खोलती है
अलमारियों में बन्द किए सपनें
बच्चों की तरह कूदते हैं उसके बुज़ुर्ग कन्धों पर
एक उदास घर के दरवाजे
खुलने लगते हैं उसके अन्दर
वह छुपा लेती है अपनी आँखों में
आस्था कि विश्वास की
रंग-बिरंगी तितलियाँ
बाँध लेती है साल भर के लिए
रेशमी दुपट्टे में करवा चौथ का चांद
वह दौड़ती है सुबह से शाम तक
आग के जंगल में
सींचती है रोटी के पेड़
वह आँखों के किसी कोने में
बचा कर रखती है थोड़ा-सा पानी
दुःखी दिनों के लिए
वह सींचती है लगातार तुलसी की जड़ें
बची रहे हरियाली इस धरती पर।