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लाल रोटियों की मुस्काने / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'
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कहाँ स्वरवती हो पाती है-
फुटपाथों की मौन भावना?
सघन आँसुओं में बह जाती-
उर अन्तर की मधुर-चाहना।
कूडे-करकट की आगी पर
लाल रोटियों की मुस्कानें,
शान्त कर रहीं भूख-रूदन को
बनकर तृप्ति-अनन्त साधना।
जीवन की परिभाषा पढने-
गढने वालों आकर देखो,
ताण्डव करते हुए अभावों
को मुश्किल है बहुत थाहना।
जीवन के उस चैडगरे पर-
खड़े हुए हैं लाज बचाए,
वे निरूपाय कहाँ को जायें?
मिलती उनको कहीं राह-ना।
डूबे हुए पसीने से वे-
मुस्काते नूतन गुलाब से,
नये-नये दुख-दर्दों से,
करते रहते हैं नित्य सामना।
कहाँ बसन्त बहारें आतीं
इनके जीवन की बगिया में?
पतझर ही चिर-पाहुन इनका,
आखिर किसको दें उलाहना?