लाल / तुलसी रमण
मां का मद्दू
और बाबा का मदना
लालों में लाल है मदनलाल
उम्र के पूरे किए ग्यारह साल
स्कूल में देवदार के नीचे
अपनी पढ़ाई को अधूरा छोड़
पूरा छोड़
दो मुट्ठी चावल, एक बंडल बीड़ी और
एक जोड़ा कपड़ों के लिए
बस, भाग निकला है मदनलाल
चीलम में बुड़बुड़ाता
सुलगता रहा असहाय बाप
तवे पर रोटी संग
जलती रही अभागी मां
तांत्रिकों की ज्योतियों और
मांत्रिकों की मुद्राओं में
तलाशते रहे अपना लाल
गांव-कस्बों को छोड़
शहर-दर-शहर बदलता रहा मदनलाल
गणतन्त्र दिवस की सुबह
कालिख पुते कीचड़ भरे
जनता ढाबा की
स्टील की प्लेटों में
हंसता है लाल
काँच के टूटे गिरते हर गिलास में
रोता है लाल
दोनों कानों में उंगलियां देकर
लक्खा सिंह के
ट्रक के डाले पर
कभी `झूरी’ गाता चैत की सांझ
पौष की लंबी रातों
हे माँ, हाय बाबा !
तिरपाल में लिपटा
देवता के `गूर’ सा
कंपकंपी में जागता
लाला जी से आंख चुराकर
पन्द्रह अगस्त की सुबह
दो-तीन बंडलों में से
एक-एक बीड़ी निकाल
पेशाबघर में जाकर
खूब सुलगाता
मेहता जी का बालू ढोते
बाल दिवस पर सुबह से शाम
गधे का घोड़ा
हो जाता लाल
नीलामी की पैंट और कमीज पहने
शीशा देख बार-बार
बाल बनाता
कुछ गुनगुनाता
और दूसरे ही पल
गला भर-भर
माँ की याद में
रो देता लाल
सिर से पैर तक
ज़ख्म लिए
आगामी सदी के देश का नक्शा
अपनी छाती पर लटकाए
एक बार घर लौटता है मदनलाल
देखता रहता उसका बाबा
बिफर पड़ती बूढ़ी मां
बस, लोहे जितना खनकता है
लाल