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लावारिस बूढ़ियाँ / तुलसी रमण

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पहाड़ियों के अगल-बगल
लाल हरे टूटे हैट पहने
         विलायती बूढ़ियाँ

अपने-अपने एकांत में
अनुशासनहीन घरों की
निष्ठुर पीढ़ी से घिरी
समय की सुंदरियाँ
पुरानी कोठियाँ

बहुत सारी जल मरीं
सत्ता के साथ सतियाँ
कुछ वियोग में ही ढह गईं

जर्जर शरीर
टुकुर-टुकुर ताकती
शत-शरद् जीने के बाद
गूंगी-बहरी वीरान
चौथे प्रहर कराहती
           शहर की नानी-दादियाँ

अक्तूबर 1990