लावारिस / राजेश श्रीवास्तव
आज फिर पड़े थे चौराहे पर
दो जिस्म लहुलुहान और लावारिस।
मक्खियों से मँडराते लोग
चील की तरह ताकते तो हैं
मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं करते,
सूख चुकी है आँखों की झील, उसमें आँसू नहीं भरते।
कोई नहीं छूता लाश
कि कहीं अंगुलियों में खून न लग जाए
कि कहीं सोयी संवेदना अचानक न जग जाए।
कहीं उसमें अपनी मृत्यु का आभास पा सकें
और जिस भाव से घर से चले थे
उस भाव से वापस घर न जा सकें।
कहीं आसपास मौत के कदमों की आहट न भर जाए
कहीं रगों में सनसनाहट न भर जाए।
इसी डर से सभी बस देखते हैं
सहानुभूति के चंद शब्द उछालते हैं
लगा लेते हैं एक खामोश आतंकित मेला
मगर कोई नहीं छूता वो लहुलुहान जिस्म
पड़ा है जो चौराहे पर लावारिस और अकेला।
दरअसल सिर्फ वही नहीं मरा
मर गए हैं अहसास,
दम तोड़ चुकी हैं संवेदनाएं,
पथरा गए हैं लोग,
किस से कहें, किससे सिर टकराएं।
जो डबडबाती थीं कभी
बदल गई हैं वो पथराई आँखों में,
इसलिए आँसू नहीं होते अब बौराई आँखों में।
सच पूछिए तो लाखों में शायद ही कोई एक आँख नम है,
आदमी अपने लिए ही रो ले, आखिर क्या ये कम है।