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लावा / कल्पना सिंह-चिटनिस
Kavita Kosh से
वे कैसे हो सकते हैं खामोश
जो लाये थे शब्द डूबकर
शताब्दियों के प्रवाह से
एक आग पी थी
और उगाये थे शब्द
हथेलियों पर
आवाज़ जिनकी
उधार नहीं
वे क्यूँ हैं खामोश?
या लहकती हैं आज भी कहीं
अस्थियां उनकी देह में
और सुर्ख़ है लहू?
फिर क्यों हैं वो
बर्फ की तरह सर्द
सफ़ेद?
जो अपनी ख़ामोशी से हमें करते हैं हैरान,
देखते हैं वे भी
सड़कों पर फैलता लावा।