लाशों का विनिमय / कौशल किशोर
वह कहता है-
आगे आकर
क्यों नहीं बो देते
उस परती पर अपने अविष्कार
और मैं देखता हूँ
इस दौड़ में बहुत पिछड़ गया हूँ
सभी दौड़ रहे हैं
अपोलो, लूना, वीनस, सोयूज...
वैज्ञानिक यंत्रों से लैस
उस परती की ओर
कौन रोता है
मानगोवा के मलवे के नीचे
दबी लाशों की अतृप्त इच्छाओं पर
पेरिस शान्ति-वार्ता में
बर्षों बहस चल सकती है
और ह्निस्की-ब्राण्डी के साथ
ग्लास में तैरती लाशें
आसानी से गटकी जा सकती है
पिकिंग या मास्को से
कातिल निक्सन को
आमंत्रण और उपहार दिया जा सकता है
मगर
बी-52 बम बर्षकों
और युद्धक विमानों से घिरे
उन नगरों के बच्चों का भविष्य
क्या होगा?
बरूदी सुरंगों से घिरे
उस देश के नक़्शे को
और कितना सिमटना होगा?
या
टैंकों के चेनों में फंसे गांवों को
कितनी बार और टूटना होगा?
आखिर कब तक
लाशों पर बैठ
शान्तिवार्ताएँ चलती रहेंगी
और लाशों का विनिमय होता रहेगा
खुलेआम बार-बार?