भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लाहघर / लोकगीता / लक्ष्मण सिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मुरखा ते यहां तक दगा बाजी करैय रामा।
लाह केर घरवा बनाबैय हो सांवलिया॥
प्रेम से बुलाबैय रामा पाण्डु परिवरवाके।
चुप के से अगिया लगाबैय हो सांवलिया॥32॥
जेकरा के राखैय सैंया मारियो कि सकेय भैंया।
बालबो कि टेड़ा करे पारैय हो सांवलिया॥
धरवा में देखैय रामा सुन्दर सुरंगवा हो।
धू धू करी जलैय लाह घर हो सांवलिया॥33॥
झटपट छोड़ी छाड़ी कुदी फांदी करी रामा।
मांद से बहार तब आबैय हो सांवलिया॥
‘लछुमन’ पैर में न फटलो बियैया हो।
केना कोऊ जानैय पीर पराय हो सांवलिया॥34॥
दुरजन आरु जोंक एक ही समनमां हो।
तिरतहूँ फिरी फिरी आबैय हो सांवलिया॥
बार बार आवैय छूवैय बाप के चरणियां हो।
लाय लपटाय ते बताबैय हो सावलिया॥35॥
मुरख, कपूत, कुल-वोरन, बेहैया हो।
अंध राजा आंधर कि जानैय हो सांवलिया॥
आपस के दुरभाव दिनो दिन बढैय रामा।
भीषम के तनिको न भावै हो सांवलिया॥36॥