पुरबा ने बाँसुरिया बन कर जब छेड़ा है नाम तुम्हारा
अभिलाषा की पुस्तक में , मैं लिखता हूँ अध्याय चाह के
स्वस्ति-चिन्ह जब रँग देती है पीपल के पत्तों पर रोली
देहरी पर, अँगनाई में जब रच जाती मंगल राँगोली
आहुतियों के उपकरणों को जब संकल्प थमाता कर में
और ॠचायें भर भर लातीं स्वाहा के मंत्रों की झोली
उस पल मेरे वाम-पार्श्व का एकाकीपन बुनता सपने
एक तुम्हारी छवियों वाली अमलतास की विटप छाँह के
मलय वनों से निर्वासित गंधों ने जब घेरा चौबारा
जब ऊषा ने विश्वनाथ के द्वारे घूँघट आन उतारा
जब कपूर ने अगरु-धुम्र के साथ किया नूतन अनुबन्धन
और अवध की गलियों ने जब संध्या को कुछ और निखारा
उस पल भित्तिचित्र में ढलता बिम्ब तुम्हारा कमल्लोचने
संजीवित कर देता है सब स्वप्न संवरते बरस मास के
प्राची की अरुणाई में जब गूँजी है प्रभात की बोली
याकि प्रतीची में उतरी हो आकर के रजनी की डोली
चन्द्र-सुधा से डूबे नभ में, महके रजत पुष्प की क्यारी
दोपहरी के स्वर्ण-पात्र में जब मौसम ने खुनकें घोलीं
उस पल मेरे भुजपाशों में उतरा हुआ ह्रदय का स्पंदन
आतुर हो जाता पाने को स्पर्श यष्टि की सुदॄढ़ बाँह के
श्लोकों से स्तुत होते हैं जब मंदिर में कॄष्ण मुरारी
बरसाने का आमंत्रण जब दोहराती वॄषभानु-दुलारी
मीरा की उंगलियाँ जगातीं जब इकतारे का कोमल स्वर
और प्रीत की शिंजिनियाँ जब नस नस में जातीं संचारी
उस पल सुधि के मानचित्र पर रूप तुम्हार दिशाबोध बन
करता है गुलाब में पारिणत, सब सिकतकण बिछी राह के.