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लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

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लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
मानस की पीड़ा हो जाए
लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
आकुलता के पल भरमाए!

लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
चाहों का विरवा लहराए
लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
साधों का नंदन जा जाए।

जीवन की जितनी असफलता
जीवन की जितनी निर्ममता
गीतों की स्वरगंगा में बह
अपना अस्तित्व मिटा जाए।

गीतों के मधुमय चषक ढलें
भावों के अभिनव कुसुम खिलें
गीतों के नीड़ों को पाकर
दुख विहगों के पर सो जाएं।

लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
सपनों की मंजिल खिंच आने
लिखता हूॅं मैं गीत दो घड़ी
कटुता का कल्मष धुल जाए।