भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लिखने जैसा / नईम
Kavita Kosh से
लिखने जैसा लिख न सका मैं
सिकता रहा भाड़ में लेकिन,
ठीक तरह से सिक न सका मैं ।
गत दुर्गत जो भी होना थी, ख़ुद होकर मैं रहा झेलता,
अपने हाथों बना खिलौना, अपने से ही रहा खेलता.
परम्परित विश्वास भरोसों पर
यक़ीन से टिक न सका मैं ।
अपने बदरँग आईनों में, यदा-कदा ही रहा झाँकता,
थी औक़ात, हैसियत, लेकिन अपने को कम रहा आँकता,
ऊँची लगी बोलियाँ लेकिन,
हाट-बाज़ारों बिक न सका मैं ।
अपने करे-धरे का अब तक, लगा न पाया लेखा-जोखा,
चढ़ न सकेगा अपने पर अब भले रँग हो बिलकुल चोखा,
चढ़ा हुआ पीठों मँचों पर
कभी आपको दिख न सका मैं ।