लिखे गीत मैंने तुम्हें ही सुनाने / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
लिखे गीत मैंने तुम्हें ही सुनाने।
तुम्हें छोड़कर इस हृदय ने जगत में
नहीं आज तक कल्पना की किसी की;
हुई भाव की तूलिका से कभी भी
नहीं आज तक चित्र रचना किसी की।
मिली साँस के तार जिसको बजाता
हुआ जा रहा थाम कम्पित करों में
भले छेड़ वह देख लो प्राण-वीणा
भरी रागिनी ही तुम्हारी स्वरों में।
उन्हीं मृदु स्वरों में, उसी रागिनी में
रहा गीत गा मैं तुम्हें ही रिझाने॥1॥
पथिक बन चलूँ खोजने मैं तुम्हें, पर
नहीं जानता पंथ जिस पर चलूँ मैं,
शलभ बन जलूँ, चाहता है हृदय पर,
नहीं जानता दीप जिस पर जलूँ मैं।
बहा धार बन, बीच में बाँध आये
मगर मैं रुका हूँ न पल भर कहीं भी;
गिरीं टूट चट्टान भी राह चलते
मगर मैं झुका हूँ न तिल भर कहीं भी।
मिलेू आज तक शूल जितने, उन्हीं में
खिलाया सुमन-मन तुम्हीं पर चढ़ाने॥2॥
न जाने हुई कौन-सी भूल मेरी
चुभी शूल-सी जो हृदय में तुम्हारे;
यही सोचता मैं रहा आज तक हो
विकल बैठ जीवन-नदी के किनारे।
नहीं चाहिए विश्व-वैभव मुझे यह
तुम्हारे हृदय का मधुर प्यार खो कर;
तुम्हीं यदि गये रूठ तो फिर बता दो
करूँ क्या यहाँ साँस का भार ढो कर!
इसी से विदा आखिरी ले जगत से
चले प्राण मेरे तुम्हें ही मनाने॥3॥