लिख पाया नहीं गीत / राकेश खंडेलवाल
गीत लिखने की कोशिश अधूरी रही
गीत लिखने को कोई विषय न मिला
ढूँढते ढूँढते ये निगाहें थकीं
कोई ऐसा न था जिससे जोड़े सिला
पत्रहीना हैं पौधे, नदी शुष्क है
राह भटके हुए मेघ भी सावनी
बीज बोती रहीं उँगलियाँ रात दिन
आस का कोई लेकिन सुमन न खिला
गीत लिखने की कोशिश अधूरी रही
व्याकरण का नहीं ज्ञान पाया अभी
भाव जैसे बिना वस्त्र के रह गया
है अलंकार में ने सजाया कभी
छंद मुझसे अपरिचित रहे, कुंडली
दोहा, चौपाई, मुक्तक से अनजान मैं
बोलना, लिखना, पढ़ना, सुनना इन्हें
सच से कहता हूँ न सीख पाया अभी
लिख पाया नहीं गीत कोई, थक गई कलम कोशिश करते
हो गये अजनबी शब्द सभी, फिर कहते भी तो क्या कहते
हड़ताल भावना कर बैठी, मन की है अँगनाई सूनी
सपनों ने ले सन्यास लिया, बैठे हैं कहीं रमा धूनी
हो क्रuद्ध व्याकरण विमुख हुई, छंदों ने संग मेरा छोड़ा
अनुबन्ध अलंकारों ने हर, इक पल में झटके से तोड़ा
अधरों के बोल थरथरा कर हो गये मौन डरते डरते
लिख पाया नहीं गीत कोई, थक गई कलम कोशिश करते
पत्थर पर iखंची लकीरों सी आदत थी हमको लिखने की
भाव्îकता के बाज़ारों में थी बिना मोल के बिकने की
सम्बन्धों को थे आँजुरि में संकल्पों जैसे भरे रहे
हर कोई होता गया दूर, हम एक मोड़ पर खड़े रहे
मरुस्थल का पनघट सूना या, टूटी गागर थी क्या भरते
हो गये अजनबी शब्द सभी, हम कहते भी तो क्या कहते
गलियों में उड़ती धूल रही उतरी न पालकी यादों की
पाँखुर पाँखुर हो बिखर गई जो पुष्प माल थी यादों की
बुझ गये दीप सब दोनों के लहरों पर सिरा नहीं पाये
सावन के नभ सी आशा थी, इक पल भी मेघ नहीं छाये
मन की माला के बिखरेपन पर नाम भला किसका जपते
लिख पाया नहीं गीत कोई, थक गई कलम कोशिश करते