जिस तरह लावा निकलता है जमीं को फोड़कर,
लिख रहे हैं गीत अब हम वर्जनाएँ तोड़कर।
और कब तक शाख की भी शाख बन रहते यहाँ,
और कब तक संकुचित गलियाँ बने बहते यहाँ।
इस धरा पर धूप-सा अब तो बिखरना है हमें,
अग्नि में चाहे तपा लो पर निखरना है हमें।
काठ की कठपुतलियों से हम नचाये हैं गये,
अब हमें स्वच्छंद होना है हवाएँ मोड़कर।
लीक पर चलते रहे जो वे जमूरे रह गए,
बिन मदारी ज़िन्दगी में हैं अधूरे रह गए।
कब पनप पाए हैं पौधे बरगदों की छाँह में,
और बच्चे बढ़ न पाते हैं बड़ों की बाँह में।
भूल कर उपमान सारे बात अभिधा में कही,
पाँव पर अब हैं खड़े हम उंगलियों को छोड़कर।