भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
लिगुआरिया में ख़ामोशी / उंगारेत्ती
Kavita Kosh से
|
हटता हुआ लहरीलेजल का मैदान
दॄश्य से परे अभी तक
सूरज नहाता होगा
उसके कुण्ड में ।
कोमल देह का एक रंग गुज़र जाता है
और अचानक वह खोलती है
अपनी आँखों की अनन्त शान्ति खाड़ी की ओर
चट्टानों की छायाएँ
हो जाती हैं विलय
मधुरता झरती है
आह्लादित नितम्बों से
एक कोमल सुलगन है सच्चा प्यार
लेता हूँ रस उसका
निश्चल सुबह के सेलखड़ी पंख से फैलता हुआ ।