लिफ्ट में फँसा आदमी / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
कोई बटन दबा रहा है
कोई दरवाजे पर खड़ा है
कोई अंदर घुसने को
कोई बाहर निकलने को
हर कोई हबड़ा-दबड़ी में
जिंदगी की लिफ्ट
निर्लिप्त-सी
ऊपर से नीचे
नीचे से ऊपर
सभी को लाती, ले जाती है
लिफ्ट होना
निर्भर है भीड़ पर
आपके कर्मों के भार पर
आपके नंबर पर
आपके तल पर
लिफ्ट की भी
अपनी एक क्षमता है
अपनी एक सत्ता है
बिना थके, बिना रुके
लिफ्ट होते रहते हैं सभी
बस आपको बटन दबाना है
एक दरवाजा खुलेगा
आप उसमें समायेंगे
क्षणों मंे बदल जायेगी
आपके नीचे की जमीं
जीवन यूँही बदलता है
इसीलिए तो लोग
सीढ़ियाँ चढ़ने की बजाय
लिफ्ट होना पसंद करते हैं
सीढ़ियों में मेहनत है
लिफ्ट में आराम है
कहीं से चढ़ें
कहीं से उतरें
कोई किसी तल पर
कोई किसी तल पर
कुछ बाहर
तो कुछ अंदर फँसे हैं।
जिंदगी की लिफ्ट
ऊपर से नीचे
नीचे से ऊपर
आती है, जाती है।