लिरिकल प्रस्फुटन: अंधेरे की छाती पर / प्रकाश मनु
पिछले छः महीने तेरे लिए लगातार
कविता तलाश करते बीता हूं मैं
उन-उन जगहों पर भी जहां धुंध को अक्सर
आकार मिला है मैं इस बार चुप और उद्विग्न ही बैठा
सोचा किया कि क्यों नहीं क्यों नहीं कविता इस बार
और हर बार हैरान होकर लौटा हूं
कि निराला के यहां कांत कविता है तू
तो मेरे लिए क्यों नहीं क्यों नहीं भद्रे क्या प्यार मेरा विकलांग
या कि दुर्बल है
नहीं उसमें लय चेतना समूची सृष्टि की उत्ताल, उदात्त
अनाविल और अनिवार्य
या कि प्यार के साथ कविता की जरूरत अब रह नहीं गयी
वह मद्धिम गुनगुनाहट अब नहीं रहा?
तुम हंसती हो और ‘‘मतलब...मतलब’’
करके पूरा करती हो
कोई बेमतलब-सा वाक्य न चाहते हुए भी मेरी तसल्ली के लिए
आंखों में गहरे झांकते कि यह जैसे कोई सवाल ही नहीं
मैं अचरज से तुम्हारे गालों में उभरते गंभीर राग
को पढ़ता हूं और और हैरान हो जाता हूं
और सोच नहीं पाता
सच पागल तू उस सबसे अलग कुछ और है
कि जा लय-भरा प्यार है वह तू नहीं तू
कविता से बाहर है
इससे अधिक नहीं सोच पाता
तू बांसुरी फूल या हंस नहीं हो सकती जानता हूं
भूरी चिड़िया या चमकीली प्यारी-प्यारी नागिन भी तू नहीं
चांद तू नहीं शराब तू नहीं दिमाग तू नहीं कमाल तू नहीं
बबाल तू नहीं
और कविता का जंजाल भी नहीं
तो तू कौन है
कौन है मेरे लिए ओ नन्ही उजली बालिका
तू शायद मेरे भीतर युगों से साधनारत मनु का सही
और एकमात्र परिचय है
और मात्र परिचय?
आह! मुझे कितना कुछ जना है तूने
सच बता सच क्या तू मां है?