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लीपना / प्रेमरंजन अनिमेष
Kavita Kosh से
जैसे नहीं चाहती रहे कहीं
कोई भी अनचाही छाप
पैरों की कगरी पर सिमटी
झुककर-तिरकर-फिरकर
पूरा सुघर लीपने के जतन में आँगन
धाँग देती फिर से आप