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लुकमींचणी - एक / मदन गोपाल लढ़ा

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अबै कोनी रमां
थारै भेळै
लुकमींचणी
खेल नै खेल कठै समझै थूं।

बता तो सरी
हरेक बारर
पैलपोत कींकर हुवै
म्हारी डांई ?
पूज‘र देखां तो
हुय सकै
हथेळी रो ऊंधो पासो आयां
म्हैं भिड़ता ई टळ जावूं
अर थारै पांती आवै
पैलड़ी डांई।

लुकणै खातर
बास री मरजाद ई
कठै मानै थूं
म्हैं सोधतो रैवूं
बास रै खुणां-खचूणां
थूं बजारिया करतो फिरै
गांव-गुवाड़।

होळै-सुस्ते
अचाणचकै
म्हारै मगरां
थप्पी मार परो
थूं एकर भळै लिख देवै
म्हारै नांव
एक बीजी डांई।