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लुक्का लगाओ / प्रभात कुमार सिन्हा

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हमारे पुरखे एक थे
हमारे दादा तक ऐसे थे जो
बांध कर रखते थे समूचे कुनबा को
हमारी नदी का घाट एक था
सभी स्त्रियाँ एक ही घाट पर पछीटती थीं कपड़े
उगते सूरज का आह्वान करते हुए
एक ही घाट पर देते थे अर्ध्य
देखो! सूर्य का चेहरा भी मलिन पड़ रहा है
काले बादल लपक रहे हैं ढंकने के लिये उसकी लालिमा
एक हम हैं कि नदी को बांट रहे हैं
अलग-अलग घाट पर
एक ही खूंट के लोग खखार रहे हैं
घर के सात चूल्हे के धुआँ से
बच्चों के दम घुट रहे हैं
बुजुर्गों के फेफड़ों में बलगम भर रहे हैं
असंख्य मेड़ बन जाने से
खेतों का रकबा सिकुड़ रहा है
कंधे लगाने के लिये चार जने भी नहीं जुट रहे हैं
हमें बांटने वाले लोग बाहर के नहीं हैं
दुश्मन हमारे ही सीने में छिपे हुए हैं
लुक्का लगाओ दुश्मनों के खोह में
एक बार कवि का कहना मान हथजोड़ कर देखो
कोई नहीं टिक सकेगा हमारी
मजबूत पसलियों के सामने
बस कुनबे को बांध कर ही तो रखना है भाई!