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लुटगई इज़्ज़त / नईम
Kavita Kosh से
लुट गई इज्ज़त
उतारी आबरू कपड़ों सरीखी,
कुरुक्षेत्रों में किसी की-
किसी की साकेत में।
सभाएँ क्यों दुरदुराती जाति-नस्लों पर,
भौंकने लगते सदन क्यों खरे मसलों पर?
अब नहीं लगता यहाँ जी-
जान देने की तमन्ना थी कभी,
पर नेक मंसूबे मिले सब रेत में।
रिंद से मोमिन न जाने क्यों जुदा है?
सर्वसम्मत हल जहाँ वो मयक़दा है।
छोड़कर चौहद्दियाँ,
मंदिर, मसीतें,
करेंगे पूजा,
पढ़ेंगे नमाजें हम खेत में।
अक़्ल पर पत्थर पड़े, दिल फट गए क्यों?
दीनो-मज़हब, रास्ते से हट गए क्यों?
मौन की भाषा चुकी,
बस अब चुकी सी।
रह गए हैं सत कहाँ
अब काल के संकेत में?
लुट गई इज्ज़त।