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लुटेरा आ चुका था अब तो मीरे-कारवाँ बनकर / कांतिमोहन 'सोज़'

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लुटेरा आ चुका था अब तो मीरे-कारवाँ<ref>सरदार</ref> बनकर।
तशद्दुद<ref>ज़ुल्म</ref> ने ज़मीं को ढक लिया था आस्माँ बनकर।।

सिवा ग़ारतगरी<ref>नाश</ref> क्या और मुमकिन है वहाँ हमदम
जहाँ सैयाद<ref>बहेलिया</ref> बैठा हो चमन का बाग़बाँ बनकर।

न चाहत है न हसरत है न सपना है कोई दिल में
फ़क़त एक याद बाक़ी है कसैला-सा धुआँ बनकर।

तुम्हें अच्छा लगे तो शौक से ले जाओ घर अपने
बहुत देखा है यारो हमने ग़म का मेज़बाँ <ref>आतिथेय</ref> बनकर।

न जाने सूरमा भी उससे क्यूँ इस दर्जा डरते हैं
बुढ़ापे में तो हर तकलीफ़ आती है जवाँ बनकर।

मैं पछताता हूँ क्यूँ मैं उसको पहचाना नहीं यारो
वो कहते हैं बहार आई थी गुलशन में ख़िज़ाँ बनकर।

कहें कैसे कि हम मुजरिम<ref>अपराधी</ref> नहीं मुजरिम हैं हम सारे
वतन को लुटते देखा सोज़ ने भी बेज़बाँ बनकर।।

शब्दार्थ
<references/>