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लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा / शाद अज़ीमाबादी

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लुत्फ़ क्या है बे-ख़ुदी का जब मज़ा जाता रहा
यूँ न मानूँ मैं मगर साग़र तो समझाता रहा

ताक़ से मीना उतारा पाँव में लग्ज़िश हुई
की न साक़ी से बराबर आँख शरमाता रहा

मुझ सा हो मज़बूत दिल तब मय-कशी का नाम ले
मोहतसिब देखा किया मजबूर झल्लाता रहा

क्या करूँ और किस तरह इस बे-क़रारी का इलाज
यार के कूचे में भी तू दिल को बहलाता रहा

नौजव़ाँ क़ातिल को अच्छी दिल-लगी हाथ आ गई
जब तलक कुछ दम रहा बिस्मिल को ठुकाराता रहा

‘शाद’ वक़्त-ए-नज़अ था ख़ामोश लेकिन देर तक
नाम रह रह कर किसी का ज़ेर-ए-लब आता रहा