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लुप्त प्रकाश / अजित कुमार

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वह प्रकाश मुझे दिखा तो
किन्तु मानो दिखने से पहले ही लुप्त हो गया ।
मैंने उसे खोजा यहाँ, वहाँ । अरे, कहाँ–कहाँ ।
जहाँ भी गया, मुझसे पहले जा चुका था वह ।

फिर भी भटकता रहा
क्योंकि मुझे चाह थी : पाने की उसे—
जबकि मिलती थी मुझे सिर्फ़ उलझन, उलझन, उलझन ।

तभी तुम दिखाई दिये
सहज, शान्त, मन्थर गति ।
पूछा मैंने तुमसे- सुनो, कभी
मिले हो उससे, जिसकी मैं
केवल परछाईं हूँ ।

तुमने कहा कुछ नहीं, हँसे, सिर्फ़ हँसे ।
और मुझे परछाईं-सा पीछे छोड़ चल दिए ।

आहट सुनता रहा तुम्हारी मैं
और बीच-बीच में वह हँसी भी
जो पहाड़ों में, दूर घाटियों में गूँज
तीव्रतर, गुरुतर और द्रुत होती जाती थी ।

सहसा मुझे लगा कि
ध्वनि भी प्रकाश है ।
मैंने कान मूँदे तो वह तड़ित-सी
मेरे नयनों को भा गई ।
और पलकें जोड़े मैं थमा रहा कि वह भी रुके
तभी सत्वर, नासिका में गन्ध बनकर समा गई ।
आह् । रन्ध्र-रन्ध्र, रोम-रोम में छा गई ।

चकित होकर बोला मैं-
ओ री किरन । भोली ।
तू कहाँ थी ? फिर आ गई ।

वह मुँह बिचका उठी-
मैं तो यहीं थी, उस झरोखे में । उधर ।

मैंने अचकचाकर दृष्टि फेरी ज्योंही, पाया क्या ?
वहाँ कहीं कुछ भी न था ।
या शायद था-
महत विस्तार का एक नन्हा, नीला टुकड़ा ।