भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लुप्त हुई विस्मृति के तम में / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लुप्त हुई विस्मृति के तम में जब सारी सुधियाँ

तब तुम संबंधों का दीप जलाने आये हो !

कूल चीर कर बिखर चली है जब जीवन-सरिता

तब तुम तटबंधों का शास्त्र सिखाने आये हो !!


जीवन जन्म मिला कैसे मुझको कुछ पता नहीं

जन्म-जन्म की कर्म ग्रंथियाँ अब तक सता रहीं

पल दो पल को मिला तुम्हारा आश्रय अमृत सा

फिर वियोग की गरल सिक्त पीड़ाएँ सदा सहीं

जब भवाग्नि में भस्म हो गईं भौतिक आस्थाएँ

तब तुम सौगधों की लाज बचाने आये हो !


मैंने सर्पिल सपनों से समझौता नहीं किया

आशाओं आकांक्षाओं को न्यौता नहीं दिया

जो कुछ मिला सहज स्वीकारा निर्विकार मन से

क्षीरसिंधु में रहकर भी मैंने बस नीर पिया

जब संवेदन-रंध्र बन्द हो गये अभावों से

तब तुम मधुगंधों का कोष लुटाने आये हो !


कितने भेदभाव हैं जग में, कितनी रेखाएँ

अर्थ अनर्थ कर रहीं दुख-सुख की परिभाषाएँ

विश्व-बंधुता के नियमन, संगठन सभी हैं, पर

द्वार-द्वार पइर देहरी है, घर-घर की सीमाएँ

जब सब नियम निरस्त हो गये, शर्तें टूट चलीं

तब तुम अनुबंधों की संधि निभाने आये हो !