लुप्त होता आदमी / भारतरत्न भार्गव
वह चाहता नहीं था लुप्त होना
इस सचेतन संसार से
यह भी नहीं कि ख़ामोश बैठा रहे
अपने को खारे समुद्र में घुलता जान कर भी
वह जानता था समझता
उसके लुप्त होते जाने की वजह
वह नहीं है क़तई नहीं
उसका मन हुआ कि एक बार
सिर्फ़ एक बार
वह होते रहने भर के लिए ज़ोर से चीख़े
कि शामिल हों वे जो गूँगे हैं बहरे भी
जिन्हें पता नहीं अभी तक
कितना ख़तरनाक हो सकता है लुप्त होता आदमी
उसके लगभग न होने के बोझ से दबी
शातिर निगाहों ने समवेत अफ़सोस
ज़ाहिर किया और उसके दफ़्न के लिए
आकर्षक ताजिए बनाने में मशगूल हो गए
ढोल - ताशों के साथ छातियाँ पीटते
बुद्धिजीवी जश्न मनाने की फ़िराक में थे
कि तभी धरती के स्तन से फूटी दूध जैसी
एक बून्द उसके हलक़ में उतर गई
यह कैसे हुआ और क्यों उसे पता नहीं
लेकिन लगातार ऐसी अप्रत्याशित घटनाओं के बावजूद
उसका लुप्त न होना सुखद आश्चर्य ही तो है।