लुप्त होती चीज़ों को स्मरण करते हुए / अरविन्द श्रीवास्तव
कुछ चीज़ें जनश्रुति, किंवदंती या अफ़वाह का हिस्सा नहीं बन पाती
पारी- पारी से कार्य करती हैं धरती की सभी चीजें
जैसे टाइप-मशीन के सभी अक्षर एक साथ काग़ज़ पर नहीं उतरते
जैसे नाटक का सभी दृश्य हम एक साथ नहीं देख पाते
सैनिक सरहद पर एक ही बार में नष्ट नहीं करते अपना गोला-बारुद
बाजीगर अपने करतब को भी एक ही बार में नहीं दिखा पाता
सुन्दरियों को भी चलना पड़ता है रैंप पर बार बार
कि जैसे सभी ऋतुएँ एक साथ नहीं धमकतीं
पर्वतारोही के पीछे ही चलना पड़ता है पर्वतारोहियों को
क्रमशः पृथक-पृथक ढंग से
सभी की अपनी-अपनी भूमिकाएँ निर्धारित होती हैं
ढेर सारी बातें हस्तांतरित परम्पराएँ नहीं बन पाती
जैसे कभी दरवाज़े पर लटकने वाली पत्र-मंजूषा
डाकिए से संदेशवाहकों तक का इंतज़ार करने वाला यह बक्सा
कभी प्रबुद्ध और संभ्रान्त परिवार का परिचय देता और जिसे खोलता घर का मालिक
कम से कम एक बार / बार-बार अपनी बेचैनी के हिसाब से
क्योंकि चिट्ठियाँ एस० एम० एस० नहीं थीं तब !
समय से बिछुड़ी हुई चीज़ों में ठहाको की वह दौड़ भी थम गई
जो पचास-सौ मीटर दूर पान की दुकान से रह रह कर उड़ती
विषय कुछ भी हो, हमें यह नागवार क्यों न गुज़रता हो
हँसने वाले हँसते थे समूह में, ठहाका मार कर
अबकी तरह नहीं कि देख लेगा कोई !
ठीक इसी तरह मौसम ने धो डाला
झगड़ालू स्त्रियों की घंटो और कभी-कभी, कई-कई दिनों तक
झाँव-झाँव कर लड़ने की परम्पराएँ
हमारे यहाँ तिनटोलिया और पचटोलिया की वीरांगनाएँ कभी हाथ नचा-नचा कर
झगड़ने की कला में माहिर मानी जाती थीं
घर-घर टी० वी० पहुँचने से पहले !
ये कुछ चीज़ें हठात् ही लुप्त नहीं हो रही हमारी ज़िन्दगी से
ऐसी ढेर सारी परम्पराओं ने कोसों सफ़र तय किए
जैसे प्रेमियों में ख़ून से ख़त लिखे जाने के क़िस्से
जैसे कवियों के लंबे घुँघराले बाल
जैसे सन्नाटे में झिंगुर ।