लुब्धक / नरेन्द्र शर्मा
वह नीलम के नग-सा लुब्धक, जगमगा रहा नभ में झलमल!
वह मेरी आँखों-सा छलछल, मेरे आकुल मन-सा चंचल!
किसकी सुधि दमक रही? लुब्धक जगमगा रहा नभ में झलमल!
घनश्याम यवनिका नित्य वही, है वही शून्य नभ रंगस्थल,
है खेल वही आखेट, वही शर, वही भीत मृग—शिर केवल!
नाटक के नायक-सा लुब्धक, जगमगा रहा नभ में झलमल!
वह तीन गाँठ का उसका शर, जो शर सब दिन जाता निष्फल,
ऐसा ही मनका इच्छा-शर, है लक्ष्य बनाया छायाछल!
वह मन का आखेटी लुब्धक, जगमगा रहा नभ में झलमल!
ली दीर्घ श्वास सन्नाटे ने, जैसे वह करवट रहा बदल;
’यह मध्य निशा का प्रहर शून्य’, कह काँप उठा पल भर पीपल!
आगया ठीक सिर पर लुब्धक, जगमगा रहा नभ में झलमल!
अब सिरा गई है शीत रात, डरते डरते दिन रहा निकल!
प्राची के ठिठुरे कोने में पौ फटी--खुला आरक्त पटल!
खो गया नील नग-सा लुब्धक, जगमगा रहा था जो झलमल!