लूट लेलस सोनवाँ के साँझ / दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह 'नाथ'
लउकता पहाड़ जइसे सूतल हो इअदिया।
आन्हर अजगर अस दिसो गुमसम बिआ।।
धुँआ में सनाइल आदित थोरिके ऊपरवाँ।
छीजत आवे नीचे जइसे मन के सपनवाँ।।
गते-गते सिखरा प सुरूज उतरले।
मलिन मुखवे ताकत मोके नीचे मुँहें चलले।।
तनी-सा छितिजवा प लउकतिया भइया।
विरही के जामल रकत के ललइआ।।
नभ में सनकि पवन बदरी उड़वले।
मन के भुलाइल बात झोरिके जगवले।।
ललकी चदरिया छितिज प डसवले।
विरहिन के हिया काढि़ ओही प सजवले।।
करिआ ओढ़नि ओढि़ साँझ चलि अइली।
बकुला के पैंतिया में इची मुसुकइली।।
कोइलि एने कुहुके, पपीहा ओने पिहिके।
हिया में सुतल केहू सपना में सिहिके।।
गोदिआ में धनि रही एक दिल बइसल।
केस रहे छहरल, रूप रहे बिखरल।।
केसिया, गगनवाँ में चान होखे विसवत।
आकि रहे चकवा-चकइआ साँझे बिछुड़त।।
ईहे ह समइआ भइया, साँझि अवसरवा।
मनवा में भेद धइ गइली नइहरवा।।
तवे से छछने प्रान, आज ले छछनले।
झरि-झरि नीर नइन सावन-भादो वनले।।
धनि भइली स्वाति के बूँद हम पपिहरा,
अबो ऊहे झाँखि बाटे अँखियन माँझ।
हाय रे रमइया हम तोर का बिगड़ली,
जे मोर लूट लेलस सोनवाँ के साँझ।।