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लू / इरेन्द्र बबुअवा
Kavita Kosh से
जेठ-बैसाख की लू
सौ तीखी मिर्च के समान लगती है
बेवजह दी गई गाली जैसी भी
जिन्हें लू में रहने, चलने की हिम्मत नहीं
वे क्या तो बाँझ खेत की तरह होते हैं
घुन लगे बीज की तरह
कि कितने लू में जीने का जोश लिए
धरती को सींचते रहते हैं
रिक्शे-ठेले पर
अपने घर-परिवार की भूख
ढोते रहते हैं
वे जो लोकगीतों की तरह होते हैं
लू में रहने, चलने के
आदी होते हैं
यह तो वाक़ई में सच है, भाई
जिन्हें लू की आदत लग जाती है
हर मौसम मे जी लेते हैं
वैसे कितने सारे ऐसे भी होते हैं
जिनकी आदत में लू तो होती है
लेकिन वे लू की आदत में नहीं होते
इसलिए वे
अपने ढेर सारे अधूरे सपने छोड़
मर जाते हैं एक दिन
फिर लू में
उनके अधूरे सपने करते हैं सफ़र !