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लेकिन जग की रीत यही है / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
मैंने कब चाहा था
उन आँखों का रोना
लेकिन जग की रीत यही है
मैंने उसके, उसने मेरे
मन को देखा
सुनी धड़कनों को
सूने जीवन को देखा
प्यार भरी बातों में हमने
सीखा खोना
सच्चे मन की प्रीत यही है
मैंने हँसने की जीने की
चाह जगाई
मेरे अरमानों ने फिर से
ली अँगड़ाई
मिला मुझे उसके दिल में
इक छोटा कोना
प्रेमिल मन की जीत यही है
लोकगीत की गंध
प्यार की मधुरिम आशा
लिखूं हँसी उसकी
इतनी सी थी अभिलाषा
मगर गीत के भाग्य मिला
सुख का शव ढोना
बोझिल मन का गीत यही है
रचनाकाल-29 नवम्बर 2017