लेखनी का इशारा / हरिवंशराय बच्चन
ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मैंने रागिनी तुझको सुनाई बहुत,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नहीं होते,
किन्तु अपना कान केवल गान के ही लिए
मैंने कब सुनाया,
तीन-चौथाई हृदय के लिए होता।
इसलिए कही तो तुझेमैंने कुरेदा और छेड़ा
भी कि तुझमें जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा स्वीकार मेरी,
किन्तु उलझी रज्जु की तू एक ढेरी।
इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा हुआ है
जो हमारे पूर्वजों के
त्याग, तप बलिदान,
श्रम की स्वेद की गाढ़ी कमाई?
हमें सौपी गई थी यह निधि
कि भोगे त्याग से हम उसे,
जिससे हो सके दिन-दिन सवाई;
किन्तु किसका भोग,
किसका त्याग,
किसकी वृद्धि।
पाई हुई भी है
आज अपनाई-गँवाई।
दूर भग,
भय कट चुका,
भ्रम हट चुका-
अनुनय-विनय से
रीझनेवाला हृदय तुझमें नहीं है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझमें नहीं अब,
क्यों कि उससे विषमतर विषपर
बहुत दिन तू पला है,
चाटता चाँदी रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
लट्ठबाजों की कमी
कुछ नहीं मेरे भाइयों में,
पर मरे को मार करके-
लिया ही जिसने, दिया कुछ नहीं,
यदि वह जिया तो कौन मुर्दा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता हूँ तुझे मैं;
क़लम का मारा हुया
बचता नहीं है।
कान तेरे नहीं,
सुनता नहीं मेरी बात
आँखें खोलकर के देख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डूबा है इसी पर
कहीं तुझसे बड़ों,
तुझसे जड़ों का
कि़स्मत-सितारा!