लेखनी को कलंकित / महेश सन्तोषी
तुम्हारा समूचा लेखन अक्षरों की अंजुलियाँ, आचमन
शब्दों से संपादित क्षण, सारे जीवन दर्शन,
इन सबके समापन की साँझ है यह,
देख लेना, असली ज़िन्दगी को जिया तुमने?
लिख लेना, कब-कब, कहाँ-कहाँ अपनी लेखनी को
कलंकित, अपमानित किया तुमने?
होने को तो होता रहा आए-दिन तुम्हारा सम्मान,
जीवन में अलंकरणों की भी कोई कमी नहीं रही,
तुमने अपने कद से ऊपर की कई ऊँचाइयों छू लीं,
फिर उन ऊँचाईयों के नीचे कोई नींव रही न रही,
बहुत सफलता से तुम करते रहे,
उम्र भर आडम्बरों के नये-नये आयोजन!
प्रायोजित ही रहे शत-प्रतिशत प्रशस्ति पत्र,
अबूझे रहे तुम्हारे शब्दों के पीछे छिपे व्याकरण,
गिन लेना, झूठ की कितनी स्तुतियाँ कीं?
सच को सरासर झूठ जैसा प्रस्तुत किया?
लांछित किया, लज्जित किया तुमने... देख लेना...!
ऊपर से तो तुम पूजते रहे माँ सरस्वती,
पर विभाजित रही तुम्हारी सारी पूजाएँ,
सतही भक्तियाँ,
जब चाहा कम, ज्यादा, अपना जमीर बेच दिया,
कभी अनुभव बेचे, कभी बेच दीं अनुभूतियाँ!
श्रद्धा तो किसी की तुम अर्जित नहीं कर सके,
गत-विगत समारोहों का गलत गणित ही जोड़ते
रहे, दो पुष्प भी अर्जित नहीं किये
पुष्प मालाओं, पुष्प वर्षाओं के
कोरे अहम् के फीके सुमन ही
सारी आयोजित अर्चनाओं में रहे,
बीन लेना वो बिखरी पाँखुरियाँ,
जिनका सारा पराग कल हाथों से मला,
पैरों से कुचल दिया तुमने... देख लेना...!