लेखनी स्वयं स्वाधीन हुई / गीत गुंजन / रंजना वर्मा
मन के उद्गारों को लिखती
है नवल कभी प्राचीन हुई।
प्रतिबंधों की हर गाँठ काट
लेखनी स्वयं स्वाधीन हुई॥
हैं स्वप्न नयन की वादी में जब जब जागे
नव मृदुल कामनाएँ जब जब रंगीन हुईं ,
था दिया समय ने वह व्याघात शिराओं को
तब टूट गया दिल सब कौड़ी की तीन हुईं।
जग की आँसू गाथाओं को
है देख देख ग़मगीन हुई।
प्रतिबंधों की हर गाँठ काट
लेखनी स्वयं स्वाधीन हुई॥
थे जब जब लगे उलझने जीवन के धागे
मन जब जब तोड़ वर्जनाओं को इन भागे ,
जब जब भी है ओढ़ा उत्तरदायित्वों को
जब मन आदर्शों की वीथी में अनुरागे ,
यह सत्य अहिंसा की बातें
है लिखने में तल्लीन हुई।
प्रतिबंधों की हर गाँठ काट
लेखनी स्वयं स्वाधीन हुई॥
आहत मन तो नित रहे प्रेम के हित तरसा
पर मात्र कामनाओं से है कब जल बरसा।
आदर्श सत्य सब केवल पुस्तक की थाती ,
पर खो इनको कब कोई भी जीवन सरसा।
प्रतिबंध लगे लाखों लेकिन
है कलम भला कब दीन हुई।
प्रतिबंधों की हर गाँठ काट
लेखनी स्वयं स्वाधीन हुई॥