लेटर बॉक्स / कुमार कृष्ण
मैं हूँ चिट्ठी घर रिश्तों का घोंसला
कोई तो आओ मेरे पास
ले आओ मेरी चिट्ठियाँ
मेरी सदियों पुरानी दोस्त मेरे पास
ले आओ मेरी बिन बुलाई मेहमान
खूबसूरत जादूगरनियाँ
मैं भूलता जा रहा हूँ-
प्यार की परिवार की परिभाषा
मत बनने दो मुझे कूड़ाघर मैं हूँ लालघर
हर मौसम की मार झेलता लोहे का घर
चिट्ठियों का रखवाला एक गरीब चौकीदार
जो बचा कर रखता है रात की आग अगली सुबह के लिए
जाओ मेरे दोस्तो-
कोई तो जाओ उन घरों के पास
जहाँ आज भी बचे हैं कुछ रिश्तों के बीज
जहाँ खूँटियों पर लटके हैं कुछ अंतर्देशीय कपड़े
जहाँ छुपाना चाहते हैं काग़ज़ में छोटे-छोटे सुख
मैंने अभी भी सम्भाल कर रखे हैं चिट्ठियों के पंख
सम्भाल कर रखे हैं चिट्ठियों के जूते
उनका हँसना-रोना, उनकी शरारतें
सम्भाल कर रखे हैं तरह-तरह के मौसम
जाओ मेरे दोस्तो-
मुझे पहुँचानी हैं चिट्ठियाँ वहाँ तक
जिन घड़ों से आ रही है नदी के रोने की आवाज़
सौंपनी हैं बची हुई आग उन चूल्हों तक
जहाँ नहीं भूले लोग-
अंधेरे के ख़िलाफ़ मशाल जलाना
नहीं भूले चिट्ठियों को छुप-छुप कर पढ़ना
जाओ मेरे दोस्तो-
अभी चिट्ठियों को खटखटानी हैं बेशुमार सांकलें
देनी है दस्तक उन दरवाजों पर
जहाँ कई दिनों से नहीं सो रहे हैं लोग
जादुई किताब पढ़ने वाले लोगों से कहना-
लेटर- बॉक्स झेल रहा है अकेलापन
जैसे झेलते हैं तमाम लोग अपने अंतिम सोपान पर
मैं कहीं धरती के अन्दर हूँ कहीं धरती के बाहर
कहीं दीवार पर हूँ तो कहीं किसी पेड़ पर
पर सच तो यह है-
मैं हर जगह होकर भी कहीं नहीं हूँ
जहाँ कहीं सो रही हैं चिट्ठियाँ
मैं उनके सपनों में हूँ।