भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

लेटर बॉक्स / स्वप्निल श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वे चमकते हुए लेटर बाक्स कहां गये
जिन्हें देखकर पत्र लिखने की इच्छा होती थी
वे सार्वजनिक जगहों अथवा चौराहों पर
टंगे हुए रहते थे
जिसपर चिट्ठियां निकालने का समय
मुकर्रर रहता था
एक आदमी थैला लेकर आता था
उसमें चिट्ठियां भरकर चला जाता था
हर शहर में रहते थे लेटरबाक्स
वे घर से बहुत दूर नहीं रहते थे
बच्चे तक उस दूरी को आसानी से
तय कर लेते थे
शहर लेटरबाक्सविहीन हो गये हैं
इक्का दुक्का बचे हुए लेटरबाक्सों का रंग
धूसर हो गया है
वे धूल से अटे पड़े हैं
उनकी तरफ कोई नहीं देखता
वे उपयोगी नहीं रह गये हैं
बाजार का नियम है जो चीजें हमारे काम
की नहीं, व्यर्थ में घेरती हैं जगह
उन्हें नष्ट कर दिया जाता है
शायद इसी तर्क से माता पिता को
घर से बाहर कर दिया जाता है
संवाद के नये तरीके चलन में हैं
चिट्ठियों के लिए किसी के पास वक्त
नहीं है
प्रेमपत्र लिखने की आदत कम हुई है
सबकुछ मोबाइल के जरिए तय
हो जाता है
मेरा बच्चा लेटरबाक्स को चिडियों का
घोसला कहता था
उसे चिट्ठियां परिंदों की तरह लगती थीं
जो पाने वाले के पास जल्दी से
उड़कर पहुंच जाना चाहती थीं
मैं खाली-खाली लेटरबाक्स की तरह हूं
कोई मेरे भीतर चिट्ठी डालकर
पुनर्जीवित कर दे, तो कितना अच्छा हो.